मुझे जीना सिखा दिया-1

‘अरे यार, बस पहले से कुछ प्‍लान नहीं था। अचानक ही प्रोग्राम बना।’ मैंने जवाब दिया।

‘लेकिन अच्‍छा हुआ ना, हम भी कल सुबह ही पंचगनी पहुंचे हैं, अभी 2 दिन और यही हैं, अगर चाहो तो मिल कर घूमेंगे, मस्‍ती करेंगे।’ विवेक ने कहा।
‘अरे वाह! ये तो अच्‍छा हुआ।’ कहकर मैंने तुरन्‍त शशि की तरफ देखा, और उसको विवेक और काजल के पंचगनी होने के बारे में बताया।

सुनकर शशि भी मुस्‍कुराई।
‘जरा काजल शशि से बात करना चाहती है।’ विवेक ने कहा।

मैंने शशि से पूछकर फोन उसकी तरफ बढ़ा दिया क्‍योंकि वो विवेक-काजल को पहले से जानती थी और उनसे 2-3 बार फोन पर भी बात हो चुकी थी। इसीलिये दोनों ने आपस में काफी देर तक बात की और अन्‍त में तय किया कि 2 घंटे बाद विवेक और काजल हमारे होटल में ही आ जायेंगे, फिर यहीं से हम चारों साथ चलेंगे और 2 दिन तक पंचगनी का मजा साथ ही लेंगे।

अब शशि और भी खुश लग रही थी क्‍योंकि साथ में घूमने को हम जैसा एक और कपल जो मिल गया था।

मैंने भी शशि की इस खुशी को और बढ़ाते हुए तय कर लिया कि कोशिश करेंगे कि विवेक और हम एक ही होटल में रूकें ताकि साथ बना रहे।

ठीक 10 बजे होटल के रिसेप्‍शन से फोन आया और विवेक-काजल के आने की सूचना मिली।
मैंने उन दोनों को मेरे रूम में ही बुला लिया।

कुछ देर बातचीत के बाद यह तय हुआ कि वो भी अपना होटल छोड़कर हमारे होटल में ही रूकेंगे।

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सबकुछ तय होने के बाद हमने अपने होटल में ही बराबर वाला कमरा उनके लिये बुक कर लिया और सिर्फ एक घंटे में ही विवेक और काजल हमारे होटल में शिफ्ट हो गये।

अब ज्‍यादा समय न गंवाते हुए हम चारों दोस्‍त तुरन्‍त टैक्‍सी करके घूमने निकल गये।
शायद ईश्‍वर भी मेहरबान थे हम पर… चारों ओर काली घटा छा गई, शीतल हवा चलने लगी।
चारों तरफ की हरियाली पहाड़ियों के बीच इस मौसम में घूमना ऐसा लग रहा था जैसे शायद स्‍वर्ग ही धरती पर उतर आया है।

दिन भर में जितनी मस्‍ती हम चारों ने की उतनी तो शायद पूरे जीवन में भी नहीं की होगी। बहुत अच्‍छी दोस्‍ती जो हो गई थी चारों में।

विवेक और काजल दोनों ही पति-पत्नि कम एक दूसरे के दोस्‍त ज्‍यादा थे, बहुत खुले विचारों वाले और जीवन को पूरी तरह से जीने वाले दम्‍पत्ति।
कभी कभी तो उन दोनों को देखकर मुझे जलन होने लगती क्‍योंकि हम दोनों पति-पत्नि में आपस में भले ही कितना भी अच्‍छा सम्‍बन्‍ध रहा हो पर हम दोस्‍त तो कभी नहीं बन पाये।

बस यूं ही मस्‍ती करते घूमते फिरते हम लोग शाम को 6 बजे प्रतापगढ़ के किले में पहुंच गये।
यह हमारा अंतिम पड़ाव था, बहुत थकान होने लगी थी ना!

टैक्‍सी वाले ने हमें 8 बजे तक टैक्‍सी स्‍टैण्‍ड पर आने को बोल दिया।
अब इतना बड़ा किला और सिर्फ 2 घंटे?
यार समय तो कम है ना… पर चलो जल्‍दी जल्‍दी करते हैं।

थोड़ा घूम फिर कर हम लोग किले के कई एकड़ में फैले बाग में आ गये। हमारे अलावा और भी बहुत सारे सैलानी बाग में टहल रहे थे। बाग की खूबसूरती देखते ही बनती थी, बहुत ही सुन्‍दर तरीके से सजाया गया था।

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हम लोग भी आपस में हंसी-मजाक, छेड़-छाड़ करते हुए बाग में टहल रहे थे।
मेरे लिये सबसे खुशी की बात यही थी कि सिर्फ खुद में डूबी रहने वाली अंर्तमुखी शशि भी हमारे इस टूर को पूरा एंजॉय कर रही थी। विवेक और काजल से उसकी अच्‍छा मित्रता हो गई।

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