Naukrani Ne Chut Ki Seal tudwai

मैं जानवरों की तरह उसकी बुर को चाट रहा था और अपने जीभ से उसकी गुलाबी बुर के भीतर का नमकीन रस पी रहा था।

कविता की सिसकारियाँ बढ़ती ही जा रही थीं और उन्हें सुन-सुन कर मेरा लंड लोहे की तरह कड़ा हो गया था।
दस मिनट के बाद कविता बोली- विराट डार्लिंग.. अब मेरी बुर की खुजली बर्दाश्त नहीं हो रही.. इसमें अपना लंड पेल दो और मेरी बुर की आग शांत करो।

मैंने जैसे ब्लू-फिल्मों में देखा था.. वैसे करने लगा, कविता के दोनों पैरों को फैलाया और अपना लंड उसकी बुर में घुसाने की कोशिश करने लगा।
कुछ तो कविता की बुर कसी हुई थी.. कुछ मुझे अनुभव नहीं था। इसलिए मेरी पूरे कोशिश के बावजूद भी मेरा लंड अन्दर नहीं जा रहा था।
मैं अपने आप भी झेंप सा गया, मेरे सामने कविता अपनी टाँगों को फैला कर लेटी थी और मैं चाह कर भी उसे चोद नहीं पा रहा था।

कविता मेरी बेचारगी पर हँस रही थी, वो बोली- अरे मेरे बुद्धू राजा.. इतनी जल्दीबाज़ी करेगा तो कैसे घुसेगा.. जरा प्यार से कर.. थोड़ा अपने लंड पर क्रीम लगा.. और फिर मेरे छेद के मुँह पर अपना पप्पू टिका.. फिर मेरी कमर पकड़ के पूरी ताकत से पेल दे अपने हथियार को..

मैंने वैसे ही किया.. अपने लंड पर ढेर सारी वैसलीन लगाई.. फिर उसकी दोनों टाँगों को पूरी तरह चौड़ा किया और उसकी बुर के मुँह पर अपने लंड का सुपारा टिका दिया।
कविता की बुर बहुत गर्म थी.. ऐसा लग रहा था जैसे मैंने चूल्हे में लंड को डाल दिया हो।
फिर मैंने उसकी कमर को दोनों हाथों से पकड़ा और अपनी पूरी ताकत से पेल दिया।

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कविता की बुर को चीरता हुआ मेरा लंड आधा घुस गया, कविता दर्द से चिहुंक उठी- उई.. माँ.. आराम से मेरे बालम.. अभी मेरी बुर कुंवारी है.. जरा प्यार से डालो.. चूत फाड़ दोगे क्या..
मैंने एक और जोर का धक्का लगाया और मेरा 7 इंच का लंड सरसराता हुआ कविता की बुर में घुस गया।
कविता बहुत जोर से चीख उठी। मैं घबरा गया.. देखा तो उसकी बुर से खून निकलने लगा था।

मैंने डरते हुए पूछा- कविता.. बहुत दर्द हो रहा है क्या.. मैं निकाल लूँ बाहर?
कविता कराहते हुए बोली- ओह्ह.. अरे नहीं.. मेरे पेलू राम.. ये तो पहली चुदाई का दर्द है.. आह्ह.. ये तो हर लड़की को होता है.. ओह्ह.. पर बाद में जो मज़ा आता है.. उसके सामने ये दर्द कुछ नहीं है.. ऊह्ह.. तू पेलना चालू रख..

कविता के कहने पर मैंने धीरे-धीरे धक्के लगाना शुरू कर दिया। कविता की बुर से निकलने वाले काम रस से उसकी बुर बहुत चिकनी हो गई थी और मेरा लंड अब आसानी से अन्दर-बाहर हो रहा था। मैंने धीरे-धीरे पेलने की रफ़्तार बढ़ा दी। हर धक्के के साथ कविता की मादक सिसकारियाँ तेज़ होती जा रही थीं, उसकी मदहोश कर देने वाली सिस्कारियों से मेरा जोश और बढ़ता जा रहा था।

अब कविता भी अपने चूतड़ उछाल-उछाल कर चुदवा रही थी- और जोर से पेलो.. और अन्दर डालो.. आह्ह्हह्ह.. उम्म्म्म और तेज़.. पेलो मेरी बुर में.. फाड़ दो मेरी बुर को.. पूरी आग बुझा दो..

कविता की ऐसी बातों से मेरा लंड और फनफ़ना रहा था। कविता तो ब्लू-फिल्म की हीरोईन से भी ज्यादा मस्त थी।
लगभग 15-20 मिनट की ताबड़तोड़ पेलमपेल के बाद मुझे लगा कि मैं हवा में उड़ने लगा हूँ, मैं बोला- कविता मुझे कुछ हो रहा है.. मेरे लंड से कुछ निकलने वाला है.. मैं फट जाऊँगा…

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