उधर कविता मुझे देख कर मुस्कुरा रही थी, उसने पूछा- और कुछ लोगे क्या.. विराट..?
मैंने ‘ना’ में सर हिलाया और चुपचाप खाना खाने लगा।
खाना खाने के बाद मैं अपने कमरे में चला गया.. तो कविता मेरे पीछे-पीछे आ गई।
उसने मुझसे पूछा- क्या हुआ विराट.. खाना अच्छा नहीं लगा क्या?
मैंने बोला- नहीं कविता.. खाना तो बहुत अच्छा था।
फिर कविता बोली- फिर इतनी जल्दी कमरे में क्यों आ गए.. जो देखा वो अच्छा नहीं लगा क्या?
यह बोलते हुए कविता ने अपनी बुर पर पेटीकोट के ऊपर से हाथ रख दिया।
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अब मैं इतना तो बेवक़ूफ़ नहीं था कि इशारा भी नहीं समझता। मैं समझ गया कि कविता भी चुदाई का खेल खेलना चाहती है.. मौका भी अच्छा है और लड़की भी चुदवाने को तैयार थी।
मैंने धीरे से आगे बढ़कर कविता को अपनी बाँहों में भर लिया और बिना कुछ बोले उसके होंठों को चूमने लगा।
कविता भी मुझसे लिपट गई और बेतहाशा मुझे चूमने लगी- विराट मैं तुम्हारी प्यास में मरी जा रही थी.. मुझे जवानी का असली मज़ा दे दो..
कविता बोल रही थी.. मैंने कविता को अपनी गोद में उठाया और बिस्तर पर लिटा दिया।
फिर मैं उसके बगल में लेट कर उसके बदन से खेलने लगा। मैंने उसके ब्लाउज और पेटीकोट उतार दिए और खुद भी नंगा हो गया।
कविता ने मेरे लंड को अपने हाथ में भर लिया और उससे खेलने लगी- हाय विराट.. तुम्हारा लंड तो बड़ा मोटा है.. आज तो मज़ा आ जाएगा।
कविता अब सिर्फ काली ब्रा और चड्डी में थी। उसके गोरे बदन पर काली ब्रा और चड्डी बहुत ज्यादा सेक्सी लग रही थी।
मैंने शुरूआत तो कर दी थी.. पर मैं अभी भी कुंवारा था.. लड़की चोदने का मुझे कोई अनुभव तो था नहीं।
शायद मेरी झिझक को कविता समझ गई.. उसने बोला- विराट तुम परेशान मत हो.. मैं तुम्हें चुदाई का खेल सिखा दूँगी.. तुम बस वैसा करो.. जैसा मैं कहती हूँ.. दोनों को खूब मज़ा आएगा।
मैं अब आश्वस्त हो गया.. कविता ने खुद अपनी ब्रा खोल कर हटा दी, उसके गोरे-गोरे चूचे आज़ाद हो कर फड़कने लगे, गोरी चूचियों पर गुलाबी निप्पल्स ऐसे लग रहे थे.. जैसे हिमालय की छोटी पर किसी ने चेरी का फल रख दिया हो।
कविता ने मुझे अपनी चूचियों को चूसने के लिए कहा। मैंने उसकी दाईं चूची को अपने मुँह में भर लिया और बच्चों की तरह चूसने लगा.. साथ ही साथ मैं दूसरे हाथ से उसकी बाईं चूची को मसल रहा था।
कविता अपनी आँखें बंद कर के सिसकारियाँ भर रही थी।
फिर मैंने धीरे-धीरे अपना हाथ उसकी चड्डी की तरफ बढ़ाया। कविता ने चूतड़ उठा कर अपने चड्डी खोलने में मेरी मदद की। कविता की बुर देख कर मैं दंग रह गया।
एकदम गुलाबी.. चिकनी बुर थी उसकी.. झांटों का कोई नामो-निशान भी नहीं था।
मैंने ज़िन्दगी में पहली बार असलियत में बुर देखी थी। मेरा तो दिमाग सातवें आसमान पर था।
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि इस गुलाबी बुर के साथ मैं क्या करूँ। कविता मेरी दुविधा को भांप गई। उसने मेरा मुँह पकड़ कर अपनी बुर पर चिपका दिया और बोली- विराट.. चाटो मेरी बुर को.. अपने जीभ से मेरी बुर को सहलाओ।
मैंने भी आज्ञाकारी बच्चे की तरह उसकी बात मानी और उसकी नमकीन बुर को चाटने लगा। उसकी बुर का अलग ही स्वाद था.. ऐसा स्वाद.. जो मैंने जिंदगी में कभी नहीं चखा था.. क्योंकि वो स्वाद दुनिया में किसी और चीज में होती ही नहीं है।