वासना की अग्नि -2

जब उनकी हथेली चूचियों पर से गुज़रती तो वे दबती नहीं बल्कि स्वाभिमान में उठी रहतीं। मास्टरजी को स्वर्ग का अनुभव हो रहा था। इसी दौरान उन्हें एक और अनुभव हुआ जिसने उन्हें चौंका दिया, उनका लिंग अपनी मायूसी त्याग कर फिर से अंगडाई लेने की चेष्टा कर रहा था। मास्टरजी को अत्यंत अचरज हुआ। उन्होंने सोचा था कि दो बार के विस्फोट के बाद कम से कम १२ घंटे तक तो वह शांत रहेगा। पर आज कुछ और ही बात थी। उन्हें अपनी मर्दानगी पर गरूर होने लगा। चिंता इसलिए नहीं हुई क्योंकि प्रगति का सिर ढका हुआ था और वह कुछ नहीं देख सकती थी। मास्टरजी ने अपने लिंग को निकर में ही ठीक से व्यवस्थित किया जिस से उसके विकास में कोई बाधा न आये।

जब तक प्रगति की आँखें बंद थीं उन्हें अपने लंड की उजड्ड हरकत से कोई आपत्ति नहीं थी। वे एक बार फिर प्रगति के पेट के ऊपर दोनों तरफ अपनी टांगें करके बैठ गए और उसकी नाभि से लेकर कन्धों तक मसाज करने लगे। इसमें उन्हें बहुत आनंद आ रहा था, खासकर जब उनके हाथ बोबों के ऊपर से जाते थे। कुछ देर बाद मास्टरजी ने अपने आप को खिसका कर नीचे की ओर कर लिया और उसके घुटनों के करीब आसन जमा लिया। अपना वज़न उन्होंने अपनी टांगों पर ही रखा जिससे प्रगति को थकान या तकलीफ़ न हो।
मास्टरजी के घर से चोरों की तरह निकल कर घर जाते समय प्रगति का दिल जोरों से धड़क रहा था। उसके मन में ग्लानि-भाव था। साथ ही साथ उसे ऐसा लग रहा था मानो उसने कोई चीज़ हासिल कर ली हो। मास्टरजी को वशीभूत करने का उसे गर्व सा हो रहा था। अपने जिस्म के कई अंगों का अहसास उसे नए सिरे से होने लगा था। उसे नहीं पता था कि उसका शरीर उसे इतना सुख दे सकता है। पर मन में चोर होने के कारण वह वह भयभीत सी घर की ओर जल्दी जल्दी कदमों से जा रही थी।

जैसे किसी भूखे भेड़िये के मुँह से शिकार चुरा लिया हो, मास्टरजी गुस्से और निराशा से भरे हुए दरवाज़े की तरफ बढ़े। उन्होंने सोच लिया था जो भी होगा, उसकी ख़ैर नहीं है।

“अरे भई, भरी दोपहरी में कौन आया है?” मास्टरजी चिल्लाये।

जवाब का इंतज़ार किये बिना उन्होंने दरवाजा खोल दिया और अनचाहे महमान का अनादर सहित स्वागत करने को तैयार हो गए। पर दरवाज़े पर प्रगति की छोटी बहन अंजलि को देखते ही उनका गुस्सा और चिड़चिड़ापन काफूर हो गया। अंजलि हांफ रही थी।

“अरे बेटा, तुम? कैसे आना हुआ?”

“अन्दर आओ। सब ठीक तो है ना?” मास्टरजी चिंतित हुए। उन्हें डर था कहीं उनका भांडा तो नहीं फूट गया….
अंजलि ने हाँफते हाँफते कहा,”मास्टरजी, पिताजी अचानक घर जल्दी आ गए। दीदी को घर में ना पा कर गुस्सा हो रहे हैं।”

मास्टरजी,”फिर क्या हुआ?”

अंजलि,”मैंने कह दिया कि सहेली के साथ पढ़ने गई है, आती ही होगी।”

मास्टरजी,”फिर?”

अंजलि,”पिताजी ने पूछा कौन सहेली? तो मैंने कहा मास्टरजी ने कमज़ोर बच्चों के लिए ट्यूशन लगाई है वहीं गई है अपनी सहेलियों के साथ।”

अंजलि,”मैंने सोचा आपको बता दूं, हो सकता है पिताजी यहाँ पता करने आ जाएँ।”

मास्टरजी,”शाबाश बेटा, बहुत अच्छा किया !! तुम तो बहुत समझदार निकलीं। आओ तुम्हें मिठाई खिलाते हैं।” यह कहते हुए मास्टरजी अंजलि का हाथ खींच कर अन्दर ले जाने लगे।

अंजलि,”नहीं मास्टरजी, मिठाई अभी नहीं। मैं जल्दी में हूँ। दीदी कहाँ है?” अंजलि की नज़रें प्रगति को घर में ढूंढ रही थीं।

मास्टरजी,”वह तो अभी अभी घर गई है।”

अंजलि,” कब? मैंने तो रास्ते में नहीं देखा…”

मास्टरजी,”हो सकता है उसने कोई और रास्ता लिया हो। जाने दो। तुम जल्दी से एक लड्डू खा लो।”

मास्टरजी ने अंजलि से पूछा,”तुम चाहती हो ना कि दीदी के अच्छे नंबर आयें? हैं ना ?”

अंजलि,”हाँ मास्टरजी। क्यों? ”

मास्टरजी,”मैं तुम्हारी दीदी के लिए अलग से क्लास ले रहा हूँ। वह बहुत होनहार है। क्लास में फर्स्ट आएगी।”

अंजलि,”अच्छा?”

मास्टरजी,”हाँ। पर बाकी लोगों को पता चलेगा तो मुश्किल होगी, है ना ?”

अंजलि ने सिर हिला कर हामी भरी।

मास्टरजी,”तुम तो बहुत समझदार और प्यारी लड़की हो। घर में किसी को नहीं बताना कि दीदी यहाँ पर पढ़ने आती है। माँ और पिताजी को भी नहीं…. ठीक है?”

अंजलि ने फिर सिर हिला दिया…..

मास्टरजी,”और हाँ, प्रगति को बोलना कल 11 बजे ज़रूर आ जाये। ठीक है? भूलोगी तो नहीं, ना ?”

अंजलि,”ठीक है। बता दूँगी…। ”

मास्टरजी,”मेरी अच्छी बच्ची !! बाद में मैं तुम्हें भी अलग से पढ़ाया करूंगा।” यह कहते कहते मास्टरजी अपनी किस्मत पर रश्क कर रहे थे। प्रगति के बाद उन्हें अंजलि के साथ खिलवाड़ का मौक़ा मिलेगा, यह सोच कर उनका मन प्रफुल्लित हो रहा था।

मास्टरजी,”तुम जल्दी से एक लड्डू खा लो !”

“बाद में खाऊँगी” बोलते हुए वह दौड़ गई।

अगले दिन मास्टरजी 11 बजे का बेचैनी से इंतज़ार रहे थे। सुबह से ही उनका धैर्य कम हो रहा था। रह रह कर वे घड़ी की सूइयां देख रहे थे और उनकी धीमी चाल मास्टरजी को विचलित कर रही थी। स्कूल की छुट्टी थी इसीलिये उन्होंने अंजलि को ख़ास तौर से बोला था कि प्रगति को आने के लिए बता दे। कहीं वह छुट्टी समझ कर छुट्टी न कर दे।
वे जानते थे 10 से 4 बजे के बीच उसके माँ बाप दोनों ही काम पर होते हैं। और वे इस समय का पूरा पूरा लाभ उठाना चाहते थे। उन्होंने हल्का नाश्ता किया और पेट को हल्का ही रखा। इस बार उन्होंने तेल मालिश करने की और बाद में रति-क्रिया करने की ठीक से तैयारी कर ली। कमरे को साफ़ करके खूब सारी अगरबत्तियां जला दीं, ज़मीन पर गद्दा लगा कर एक साफ़ चादर उस पर बिछा दी। तेल को हल्का सा गर्म कर के दो कटोरियों में रख लिया। एक कटोरी सिरहाने की तरफ और एक पायदान की तरफ रख ली जिससे उसे सरकाना ना पड़े। साढ़े १० बजे वह नहा धो कर ताज़ा हो गए और साफ़ कुर्ता और लुंगी पहन ली। उन्होंने जान बूझ कर चड्डी नहीं पहनी।

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उधर प्रगति को जब अंजलि ने मास्टरजी का संदेशा दिया तो वह खुश भी हुई और उसके हृदय में एक अजीब सी कूक भी उठी। उसे यह तो पता चल गया था कि मास्टरजी उसे क्या “पढ़ाने” वाले हैं। उसके गुप्तांगों में कल के अहसासों के स्मरण से एक बिजली सी लहर गई। उसने अपने हाव भाव पर काबू रखते हुए अंजलि को ऐसे दर्शाया मानो कोई ख़ास बात नहीं है। बोली,”ठीक है…. देखती हूँ …। अगर घर का काम पूरा हो गया तो चली जाऊंगी।”
अंजलि,” दीदी तुम काम की चिंता मत करो। छुटकी और मैं हैं ना …। हम सब संभाल लेंगे। तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।”

उस बेचारी को क्या पता था कि प्रगति को “काम” की ही चिंता तो सता रही थी। छुटकी, जिसका नाम दीप्ति था, अंजलि से डेढ़ साल छोटी थी। तीनों बहनें मिल कर घर का काम संभालती थीं और माँ बाप रोज़गार जुटाने में रहते थे।

प्रगति,”तुम बाद में माँ बापू से शिकायत तो नहीं करोगे?”

अंजलि,”हम उन्हें बताएँगे भी नहीं कि तुम मास्टरजी के पास पढ़ने गई हो। हमें मालूम है बापू नाराज़ होंगे…। यह हमारा राज़ रहेगा, ठीक है !!”

प्रगति को अपना मार्ग साफ़ होता दिखा। बोली,”ठीक है, अगर तुम कहती हो तो चली जाती हूँ। ”

“पर तुम्हें भी हमारा एक काम करना होगा……” अंजलि ने पासा फेंका।

“क्या ?”

“मास्टरजी मुझे मिठाई देने वाले थे पर पिताजी के डर से मैंने नहीं ली। वापस आते वक़्त उन से मिठाई लेती आना।”

“ओह, बस इतनी सी बात…..। ठीक है, ले आऊँगी।” तुम ज़रा घर को और माँ बापू को संभाल लेना।”

दोनों बहनों ने साज़िश सी रच ली। छुटकी को कुछ नहीं मालूम था। दोनों ने उसे अँधेरे में रखना ही उचित समझा। बहुत बातूनी थी और उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता था।

प्रगति अब तैयारी में लग गई। घर का ज़रूरी काम जल्दी से निपटाने के बाद नहाने गई। उसके मन में संगीत फूट रहा था। वह नहाते वक़्त गाने गुनगुना रही थी। अपने जिस्म और गुप्तांगों को अच्छे से रगड़ कर साफ़ किया, बाल धोये और फिर साफ़ कपड़े पहने। उसे मालूम था मालिश होने वाली है सो चोली और चड्डी के ऊपर एक ढीला ब्लाऊज और स्कर्ट पहन ली। अहतियात के तौर पर स्कूल का बस्ता भी साथ ले लिया जब कि वह जानती थी इसकी कोई आवश्यकता नहीं होगी।

ठीक पौने ग्यारह बजे वह मास्टरजी के घर के लिए चल दी।
प्रगति सुनिश्चित समय पर मास्टरजी के घर पहुँच गई। वे उसकी राह तो बाट ही रहे थे सो वह घंटी बजाती उसके पहले ही उन्होंने दरवाजा खोल दिया। एक किशोर लड़के की भांति, जो कि पहली बार किसी लड़की को मिल रहा हो, मास्टरजी ने फ़ुर्ती से प्रगति को बांह से पकड़ कर घर के अन्दर खींच लिया। दरवाजा बंद करने से पहले उन्होंने बाहर इधर उधर झाँक के यकीन किया कि किसी ने उसे अन्दर आते हुए तो नहीं देखा। जब कोई नहीं दिखा तो उन्होंने राहत की सांस ली। अब उन्होंने घर के दरवाज़े पर बाहर से ताला लगा दिया और पिछले दरवाज़े से अन्दर आ गए। उसे भी उन्होंने कुंडी लगा दी और घर के सारे खिड़की दरवाजों के परदे बंद कर लिए।
प्रगति को उन्होंने पानी पिलाया और सोफे पर बैठेने का इशारा करते हुए रसोई में चले गए। अब तक दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई थे। दोनों के मन में रहस्य, चोरी, कामुकता और डर का एक विचित्र मिश्रण हिंडोले ले रहा था। मास्टरजी तो बिलकुल बच्चे बन गए थे। प्रगति के चेहरे पर फिर भी एक शालीनता और आत्मविश्वास झलक रहा था। कल के मुकाबले आज वह मानसिक रूप से ज्यादा तैयार थी। उसके मन में डर कम और उत्सुकता ज़्यादा थी।

मास्टरजी रसोई से शरबत के दो ग्लास ले कर आये और प्रगति की तरफ एक ग्लास बढ़ाते हुए दूसरे ग्लास से खुद घूँट लेने लगे। प्रगति ने ग्लास ले लिया। गर्मी में चलकर आने में उसे प्यास भी लग गई थी। शरबत ख़त्म हो गया। दोनों ने कोई बातचीत नहीं की। दोनों को शायद बोलने के लिए कुछ सूझ नहीं रहा था। दोनों के मन में आगे जो होने वाला है उसकी शंकाएँ सर्वोपरि थीं।

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मास्टरजी ने अंततः चुप्पी तोड़ी,”कैसी हो ?”

प्रगति सिर नीचा कर के चुप रही।

“मालिश के लिए तैयार हो?”

प्रगति कुछ नहीं बोली।

“मैं थोड़ी देर में आता हूँ, तुम मालिश के लिए तैयार होकर लेट जाओ।” यह कहकर मास्टरजी बाथरूम में चले गए।

प्रगति ने अपने कपड़े उतार कर सोफे पर करीने से रख दिए और चड्डी और चोली पहने ज़मीन पर गद्दे पर लेट गई और चादर से अपने आप को ढक लिया। अपने दोनों हाथ चादर के बाहर निकाल कर दोनों तरफ रख लिए।

मास्टरजी, वापस आये तो बोले,” अरे तुम तो सीधी लेटी हो !! चलो उल्टी हो जाओ।”

प्रगति चादर के अन्दर ही अन्दर पलटने की नाकाम कोशिश करने लगी तो मास्टरजी ने बोला,”प्रगति, अब मुझसे क्या शर्माना। चलो जल्दी से पलट जाओ।”
प्रगति ने चादर एक तरफ करके करवट ले ली और उल्टी लेट गई। लेट कर चादर ऊपर लेने का प्रयास करने लगी तो मास्टरजी ने चादर परे करते हुए कहा,”अब इसकी कोई ज़रुरत नहीं है। ”

“और इनकी भी कोई ज़रुरत नहीं है।” कहते हुए उन्होंने प्रगति की चड्डी नीचे खींच दी और टांगें उठा कर अलग कर दी। फिर चोली का हुक खोल कर प्रगति के पेट के नीचे हाथ डाल कर उसे ऊपर उठा लिया और चोली खींच कर हटा दी। अब प्रगति बिलकुल नंगी हो गई थी। हालाँकि वह उल्टी लेटी हुई थी, उसने अपने हाथों से अपनी आँखें बंद कर लीं उसके नितम्बों की मांसपेशियाँ स्वतः ही कस गईं।

मास्टरजी को प्रगति की यही अदाएं लुभाती थीं। उन्होंने उसकी पीठ और सिर पर हाथ फेर कर उसका हौसला बढ़ाया और उसकी मालिश करने में जुट गए।

गर्म तेल की मालिश से प्रगति को बहुत चैन मिल रहा था। कल के मुकाबले आज मास्टरजी ज़्यादा निश्चिंत हो कर हाथ चला रहे थे। उन्हें प्रगति के भयभीत हो कर भाग जाने का डर नहीं था क्योंकि आज तो वह सब कुछ जानते हुए भी अपने आप उनके घर आई थी। मतलब, उसे भी इस में मज़ा आ रहा होगा। मास्टरजी ने सही अनुमान लगाया।

थोड़ी देर के बाद मास्टरजी ने प्रगति के ऊपर घुड़सवारी सा आसन जमा लिया और अपना कुर्ता उतार दिया। अब वे सिर्फ लुंगी पहने हुए थे। लुंगी को उन्होंने घुटनों तक चढ़ा लिया था अपर उनका लिंग अभी भी लुंगी में छिपा था।

इस अवस्था में उन्होंने प्रगति के पिछले शरीर पर ऊपर से नीचे, यानि कन्धों से कूल्हों तक मालिश शुरू की। जब वे आगे की तरफ जाते तो जान बूझ कर अपनी लुंगी से ढके लिंग को प्रगति के चूतड़ों से छुला देते। कपड़े के छूने से प्रगति को जहाँ गुलगुली होती, मास्टरजी के लंड की रगड़ से उसे वहीं रोमांच भी होता। मास्टरजी को तो अच्छा लग ही रहा था, प्रगति को भी मज़ा आ रहा था। मास्टरजी ने अपने आसन को इस तरह तय किया कि जब वे आगे को हाथ ले जाएँ, उनका लंड प्रगति के चूतड़ों के बीच में, किसी हुक की मानिंद, लग जाये और उन्हें और आगे जाने से रोके। एक दो ऐसे वारों के बाद प्रगति ने अपनी टाँगें स्वयं थोड़ी खोल दीं जिससे उनका लंड अब प्रगति की गांड के छेद पर आकर रुकने लगा। जब ऐसा होता, प्रगति को सरसराहट सी होती और उसके रोंगटे से खड़े होने लगते। उधर मास्टरजी को प्रगति की इस व्यवस्था से बड़ा प्रोत्साहन मिला और उन्होंने जोश में आते हुए अपनी लुंगी उतार फेंकी।

अब वे दोनों पूरे नंगे थे। मास्टरजी ने प्रगति के हाथ उसकी आँखों पर से हटा कर बगल में कर दिए। अब वह एक तरफ से कुछ कुछ देख सकती थी। मास्टरजी ने अपने वार जारी रखे जिसके फलस्वरूप उनका लंड तन कर प्रबल और विशाल हो गया और प्रगति की गांड पर व्यापक प्रभाव डालने लगा।

मास्टरजी आपे से बाहर नहीं होना चाहते थे सो उन्होंने झट से अपने आप को नीचे की तरफ सरका लिया और प्रगति की टांगों पर ध्यान देने लगे। उनके हाथ प्रगति की जांघों के बीच की दरार में खजाने को टटोलने लगे। प्रगति से गुदगुदी सहन नहीं हो रही थी। वह हिलडुल कर बचाव करने लगी पर मास्टरजी के हाथों से बच नहीं पा रही थी। जब कुछ नहीं कर पाई तो करवट ले कर सीधी हो गई। अपनी टाँगें और आँखें बंद कर लीं और हाथों से स्तन ढक लिए। मास्टरजी इसी फिराक़ में थे। उन्होंने प्रगति के पेट, पर हाथ फेरते हुए प्रगति के हाथ उसके वक्ष से हटा दिए।

तेल लगा कर अब वे उसकी छाती की मालिश कर रहे थे। प्रगति के उरोज दमदार और मांसल लग रहे थे। उसकी चूचियां उठी हुई थीं और वह जल्दी जल्दी साँसें ले रही थी। मास्टरजी का लंड प्रगति की नाभि के ऊपर था और कभी कभी उनके लटके अंडकोष उसकी योनि के ऊपरी भाग को लग जाते। प्रगति बेचैन हो रही थी। उसमें वासना की अग्नि प्रज्वलित हो चुकी थी और उसकी योनि प्रकृति की अपार गुरुत्वाकर्षण ताक़त से मजबूर मास्टरजी के लिंग के लिए तृषित हो रही थी। सहसा उसकी योनि से द्रव्य पदार्थ रिसने लगा।



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